Saturday, March 14, 2009

नियति...

मन आवारा , देखो फ़िर उड़ चला
हवा में छपी अपनी तस्वीर देख फिसल ही गया...
अपनों की रुसवाई सह ना सका...
अपनेपन पर न्योछावर हो गया...
नेह के आंसू मेघ बन कर यूँ न बरसते...
आशा की झिलमिल ज्योत न दिखती,
मेरे पागल मन अगर तू ज़मीन पर स्थिर रहता।

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