Saturday, February 21, 2009

मेरा तीसरा कवि सम्मलेन ...

आहिस्ता आहिस्ता ... धीरे धीरे,
नीर-उद्देश्य , निर्विकार ... चल रहा है वो पीछे पीछे ,
आसपास की दुनिया हो जैसे रीते रीते !
किरिचों में विभक्त हो चुकी आज़ादी को ढोते ढोते ,
सहिष्णुता और सद्भाव को ताक पर रख के ,
मतलब-परस्ती की राह पर चलते चलते

थक गया है वह , टूट गया है वह !
"वह "- जो एक भाव है , ऐसा भाव जो अभी 'निर्भाव है' ,
निर्विकार, मौन , किन्कर्तव्यविमूद्र्ह, अचल मानवता का भाव।

नन्ही कलियों में भरी हुयी है निराशा ,
अवनति- आर्थिक हो या मानसिक- ने तोड़ डाली है सारी आशा ।
टूटे कमर, टूटी उम्मीदों की पिपासा ।
बिखरने लगे 'स्वभाव' के 'स्व: और भाव" अलग अलग।
भाव तो पहले ही गुज़र चुका था , स्व: हो गया अहम् और पृथक ।

फ़िर स्व: के भार से उद्भव हुआ एक "प्रहार " का।
उस एक "प्रहार " ने किया महाविनाश!

विनाश, विद्रोह, विस्फोट, और मौत का तांडव।
मृत्यु, भय , और शोक का हो गया राज ।
धूल-धूसरित हो गया नीला आकाश ,
प्रकृति को समाप्त होते देख , इश की आत्मा भी कांपने लगी ।
प्रभुसत्ता के सारे सच्चे- भ्रष्ठ लोग हो गए एकाकार ।

विनाश और विद्रोह...
क्यूंकि नव-सृजन को चाहिए एक वैचारिक महाविस्फोट ,

और ऐसी उर्वर भूमि की संरचना
जिसमे अवनति भी आशा की किरण के साथ आए
परछाई,उजाले और दीपक की लौ से हार जाए ।
अँधेरा,अंतर्मन की गहराई से गायब हो जाए ,
हर ताक पर आशा के दीपक जगमगा जाएँ।
सवेरा ढल ना पाये , रजनी आ ना पाये।
धरती मुस्कुराती रहे, apni छठा bikherti रहे।

क्यूंकि.... अन्धकार में भी "रौशनी" को जो निहारेगा,
जीवन की जीना वही जान पायेगा ,
क्यूंकि... यह समय और यह दिन दुबारा कभी नही आएगा

यह पल अपने आप को कभी नही दुहरायेगा !

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